रस और ध्वनि सिद्धान्त की मनोवैज्ञानिकता
Abstract
प्राचीन साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थों से लेकर आधुनिक काल तक के जो भी साहित्य शास्त्र के ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है उनमें साहित्यशास्त्रियों की मनोवैज्ञानिकता स्पष्टतया प्रदर्शित हुई है। इसका विस्तृत विवेचन भारत मुनि से ही आरम्भ हो जाता है, जिसको अनेक परवर्ती आचार्यों ने भी ग्रहण किया है। रस के सन्दर्भ में तो यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्यों कि कवि या काव्यशास्त्री मानव मन का अध्ययन किये बिना अपने कृत्य में सफल नहीं हो सकता है। रस सिद्धान्त की पृष्ठभूमि भी हमारी सूक्ष्म मानसिक वृत्ति पर आधारित है। विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव, एक चेतन मन की ही क्रियायें हैं तथा अनेक प्रकार के जो भी काव्यगत, रसगत, व साहित्यगत विचार है वे मन की विशेष मनोदशा के परिचायक हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि रस व ध्वनि सिद्धान्त के मूल में मानसिक व्यायाम की पराकाष्ठा परिलक्षित होती है जो पूर्ण मनोवैज्ञानिक है।
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