लोकगीतों में समरस भाव

डाँ मंजु तॅंवर

Abstract


हिन्दी में सामान्य अर्थ में दो शब्द चलते हैं - 1. जन और दूसरा लोक। इनका उपयोग ऐसे भ किया जाता है कि इनका अर्थ एक ही है जबकि इनमें थोड़ा अंतर करना होगा क्योंकि जन में सब कुछ आ जाता है जबकि लोक का एक विषिष्ट अर्थ देता है। अंग्रेजी में लोक के लिए फोक शब्द है कहीं कहीं से फोल्क भी लिखते हैं और अक्सर ऐसा जताया भी जाता हे कि ये लोक अंग्रेजी से हिन्दी में आय। वस्तुथिति इससे एकदम भिन्न है क्योंकि यूरोप के फोक से हमारे लोक की अवधारणा एकदम अलग है। यूरोप के फोक में लगभग अभिजात्य वर्ग की वह रचनाषिलता है जिसमें गीत, किस्से कहानियॉं, नाटक आदि शामिल किये जा सकते हैं। जो दोनां प्रकार के हो सकते हैं। और यह आवष्यक नहीं कि उस अभिजात्य वर्ग की रचनाषिलता व्यक्त हो जबकि लोक का सबसे बड़ा गुण उसकी रचनाषिलता को व्यक्ति करना है हमारे यहां कभी कभी एक भ्रम सा होत है कि लोक का संबंध केवल गांव, निर्धन, कजोर या केवल स्त्रियों से है। वैसे तो लोक की परिभाषा देना न केकवल मुष्किल बल्कि असंभव सा है फिर भी यदि खुले चक्षुओं से देखे तों हमरा लोक न केवल गांवों, कस्बों , नगर निर्धन कमजोर स्त्रियों में पलता हे जहां निमा्रण नहीं बल्कि सुजन होता है। निर्माण और सृजन में फर्क है। निर्माण में सामग्री की आवष्यकता होती है जबकि सृजन बिल्कुल सहज भाव से हमारे मन के सुख दुख हर्ष उल्लास करूण प्रेम आदि के अलावा पदी नाले, झरने सर्दी गर्मी बरसात आदि प्रकृति के रूपों से अपना आकर स्वतः ही सृजित होता और रमता रहता है।


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