आचार्य विद्यासागर जी के अनुसार गुरु-शिष्य संबंध
Abstract
प्रस्तुत शोध में आचार्य विद्यासागर जी के अनुसार गुरु-शिष्य संबंध का अध्ययन किया गया है। शिक्षक का कार्य अत्यन्त संवेदनशील व महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि मूर्तिकार एक पत्थर से मूर्ति तैयार करता है, कुम्हार मिट्टी से मूर्ति तथा बर्तन बनाता है, परन्तु शिक्षक भावुक तथा सजीव बालकों को एक अच्छा मानव बनाता है। शिक्षक नई पीढ़ी का निर्माता तथा शिल्पकार है। शिक्षक शिक्षा का सजीव माध्यम है। वह पुस्तकों की नीरसता से नहीं, अपने सजीव सम्पर्क से, शुद्ध आचरण से तथा जीवन की खुली पुस्तक से छात्रों को शिक्षित करता है। इसलिए गुरु के साथ कभी ‘था’ नहीं लगता ‘है’ ही लगता है क्योंकि ‘था’ संबंधों को विराम देता है और ‘है’ गति प्रदान करता है। आचार्य प्रवर का मानना है कि गुरु-शिष्य के मध्य जो संबंध है, वह विचारों का नही श्रद्धा का आत्मीय संबंध है। जगत के सारे संबंध शरीर के संबंध हैं, जो संसार के कारण हैं, परंतु गुरु-शिष्य का संबंध आत्मा का संबंध है। उससे बड़ा आत्मीय एवं भावात्मक संबंध जगत में कोई भी नहीं है। यही कारण है कि गुरु-शिष्य संबंध अध्ययन काल तक ही नहीं, बल्कि सर्वदा बने रहते हैं और यही गुरु शिष्य के संबंधों की सार्थकता है, जो उसे शिक्षा के अंतिम लक्ष्य तक पहुँचाती है। जिससे भारत को सुयोग्य नागरिक मिलेगे और प्राचीन समृद्धशाली भारत की पुनःस्थापना होगी। शोध की प्रकृति दार्शनिक होने के कारण शोधकर्त्री ने शोध हेतु दार्शनिक विधि का चयन किया है। आचार्य प्रवर के विपुल साहित्य में से 20 ग्रंथों का चयन न्यादर्श की सोद्देश्य विधि के माध्यम से किया। दार्शनिक शोध में मानव के अनुभवों पर उनकी सत्यता का प्रतिस्थापन किया जाता है। दर्शन में प्रयोग नहीं किये जा सकते अतः केवल जीवन के अनुभवों के आधार पर बौद्धिक स्तर पर तार्किक ढंग से चिंतन किया गया हैं।
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