भारतीय दर्शन में चित्त का स्वरुप - पतंजलि योग दर्शन के विशेष सन्दर्भ में

रोशन कुमार भारती, उपेन्द्र बाबू खत्री, अखिलेश कुमार सिंह, शाम गणपत तीखे

Abstract


भारतीय दर्शन परंपरा अत्यंत विस्तृत और समृद्धशाली  होने के साथ साथ अत्यंत पुरातन भी है, इस दर्शन परंपरा मे अनेकानेक आस्तिक से लेकर नास्तिक तक सभी दर्शन परंपराओ का समावेश है | परन्तु  प्रयोगात्मक स्वरुप लिए हुए  योग दर्शन इसमें अपना विशिष्ट स्थान रखता है | योग दर्शन की दार्शनिक पृष्ठभूमि सांख्य दर्शन पर आधारित है |

महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग दर्शन का सारभूत सम्प्रत्यय चित्त है | चित्त शब्द का विविध दर्शनों में बहुधा प्रयोग हुआ है, साथ ही यह भिन्नार्थक स्वभाव वाला होने के कारण जिज्ञासुओं  में मतिभ्रम उत्पन्न करता है | वस्तुत: चित्त ही चेतना का वह माध्यम है, जिसकी सहायता से हमारा अस्तित्व बाह्य दुनिया से संपर्क स्थापित करता है | यह महर्षि  पतंजली के अनुसार कर्माशय के रूप में भी कार्य करता है,जिसमें जन्म के कारणभूत संस्कार संगृहीत रहते है |

महर्षि व्यास के अनुसार चित्त की चंचलता का कारण त्रिगुणों में हो रहे परिवर्तन है | चित्त ही समस्त क्लेशों और  वृत्तियों का कारण है , जो अंततः मनुष्य को बंधन ग्रसित करती है | चित्त का तत्व ज्ञान हो जाने पर बन्धनों से मुक्ति सहज और सरल हो जाती है |

प्रस्तुत शोध पत्र में विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के अनुसार चित्त, उसके कारण तथा त्रिगुणों के संपर्क से होने वाले विषयों में परिवर्तन की व्याख्या की गयी है | इस शोध पत्र के माध्यम से चित्त के वृहद् दार्शनिक स्वरुप के साथ-साथ जीवन में दिन-प्रतिदिन उपयोग हेतु उसके सुबोध स्वरुप को भी प्रस्तुत किया गया है |



Keywords


चित्त, योग दर्शन, योग, योग सूत्र, चित्त वृत्ति, चित्त भूमियाँ |





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