मूर्ति एवं प्रतीक-पूजा की दृष्टि से शिव का लिंग रूप में अर्चन : एक नूतन विमर्श

धीरेन्द्र सिंह

Abstract


प्राचीन प्रतीकों में सबसे अधिक विवादास्पद विषय लिंग-उपासना है। लिंग-उपासना कब से शुरू हुई, यह विवादास्पद है। कटनर ने अपनी पुस्तक में यह सिद्ध कर दिया है कि संसार के हर कोने में वासना तथा प्रजनन की प्रेरणा से लिंग-उपासना चालू थी। उनका कथन है कि आदिकाल के पुरुषों के इतिहास का पहला पन्ना खोलते ही सामने काम-उपासना आ जायेगी।1 और ऐसी ही उपासना लिंग पूजा के रूप में थी। परब्रह्म तथा पुरूष-प्रकृति के प्रतीक शिव की उपासना हजारों वर्षो से चली आ रही है। संसार मे ंयह सबसे प्राचीन उपासना है। मृर्ति तथा प्रतीक-पूजा की दृष्टि से शिव का लिंग-रूप में अर्चन सबसे प्राचीन प्रातीकार्चन है। शिव-लिंग न तो प्रतिमा है और न मूर्ति। वह तो शुद्ध प्रतीक है। इस प्रतीक के विकास में भी शिव-उपासना के हजारो वर्ष लगे होंगे। शिव की अनेक रूपों में वैदिक काल में पूजा होती थी। ऋग्वेद में शिश्नवदेव का जिक्र है। 10वें अध्याय में 99.3 में इन्द्र की प्रशंसा है कि उसने 100 फाटकों वाले किले पर अधिकार कर बड़ी धनराशि प्राप्त की तथा ‘शिश्वदेवों’ का संहार किया। कुछ लोगों का कहना है कि शिश्नदेव से तात्पर्य उन लोगों से है जो लिंग पूजक थे सायण ने इसकी व्याख्या की है- ‘श्श्निन दिव्यति’ - लिंग से खेलने वाले यानी व्यसनी लोग।

Full Text:

PDF




Copyright (c) 2018 Edupedia Publications Pvt Ltd

Creative Commons License
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-ShareAlike 4.0 International License.

 

All published Articles are Open Access at  https://journals.pen2print.org/index.php/ijr/ 


Paper submission: ijr@pen2print.org