हिंदी दलित आत्मकथाओं में मानवता की पुकार

डॉ संतोष रानी

Abstract


सभ्य समाज का आधार नैतिक मानदंडो पर आधारित होता है। जिसमें स्वतन्त्राता, समानता, बंधुता व मानवीयता आदि मूल्य समाज को नियन्त्रित व सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक होते हैं। लेकिन आधुनिक युग के आपा-धापी व भौतिकवादी जीवन में ये मानवीय मूल्य लुप्त होते जा रहे हैं। औद्योगिकरण की नई परिस्थितियों ने मानवीय सम्बंधों, संस्कारों और मानसिकता में परिवर्तन ला दिया है। अगर दलित समाज के सन्दर्भ में इन मानवीय मूल्यों का अवलोकन किया जाए तो सभ्य समाज ने इन्हें कभी मनुष्य समझा ही नहीं। इसने साथ पशु से बदतर व्यवहार किया जाता रहा है। असमानता, शोषण, अत्याचार व अन्याय पर आधारित भारतीय समाज ने दलितों को मात्र गरीबी, भूखमरी, गुलामी, अशिक्षा आदि परिस्थितियों में जीने को मजबूर किया है। समस्त मानवाधिकार से वंचित यह वर्ग सवर्ण समाज की हिंसक प्रवृति का शिकार रहा है। सवर्ण समाज की इसी रक्त चूषक प्रवृति का दलित आत्मकथाओं में वर्णन हुआ है। जहां दलित समाज की लाचारी व बेबसी का चित्रण तो है ही साथ ही साथ सवर्ण समाज की संवेदनहीनता का बोध भी होता है।


Full Text:

PDF




Copyright (c) 2018 Edupedia Publications Pvt Ltd

Creative Commons License
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-ShareAlike 4.0 International License.

 

All published Articles are Open Access at  https://journals.pen2print.org/index.php/ijr/ 


Paper submission: ijr@pen2print.org