पाणिनी व्याकरण के अनुसार समास का उद्भव और विकास

पूनम रानी

Abstract


संसार में मनुष्यों की क्रिया प्रतिक्रिया सभी भाषा के आधार पर ही चलती है। महाकवि ‘दण्डी‘ ने ‘काव्यादर्श‘ में कहा है कि ‘‘यह सम्पूर्ण भुवन अन्धकार पूर्ण हो जाता, यदि संसार में शब्द-स्वरूप ज्योति (भाषा) का विकास न होता। भाषा का शुद्ध ज्ञान व्याकरण द्वारा होता है। भाषागत अभिव्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण उपादान ‘वाक्य‘ ही है। हम अपने विचारों को वाक्यों द्वारा ही अभिव्यक्त कर सकते हैं, अलग-अलग शब्दों द्वारा नहीं। भाषा की प्रारम्भिक दशा में वाक्यों का ही प्रयोग होता था, अर्थात् भाषा का मूल स्वरूप वाक्य ही था। तैŸारीय संहिता में स्पष्टरूप से दिखाई देता है कि प्रारम्भ में वाक्य एक अविभाज्य विचार की ईकाई में माना गया। वाक्य के पदों का विश्लेषण बाद में विचार करने वाले वैयाकरणों द्वारा किया गया, इस प्रकार भाषा का अवयव पद को न मानकर वाक्य को माना। शब्द और ध्वनि जो वाक्य की संरचना करते हैं, वे केवल वास्तविकता को ही प्रकट करते है।। भर्तृहरि का कथन है कि शब्दों में ध्वनियाँ नहीं हैं, वाक्य में शब्द नहीं हैं, और वाक्य के बिना शब्दों में स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वक्ता अपने अभिप्रायः को पृथक-पृथक पदों मे न बोलकर एक वाक्य के रूप में ही प्रकट करता है। संस्कृत भाषा में ‘समासों‘ का आधार ‘वाक्य‘ ही है। समास वाक्य रचना का अनिवार्य अंग है।


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