ब्रिटिश कालीन भारत में सामाजिक विधान और नारी एक अध्ययन
Abstract
प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्रियों का बहुत सम्मान होता था। उन्हे विभिन्न प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। परन्तु धीरे - धीरे उतरवैदिक काल के आते - आते उन की स्थिति में गिरावट आनी आरम्भ हो गई। मध्यकाल में नारी की स्थिति में महान परिवर्तन हुए, उन को चार दीवारी में ही रहना पडता था। इस प्रकार अग्रेजों के आगमन तक स्त्रियों की स्थिति नाजुक हो गई। उन्हे पुरुषों से हीन समझा जाने लगा और कदम - कदम पर उन्हे समाज की रुढिवादी विचार धाराओं का शिकार होना पडता था। उन्हे विभिन्न प्रकार के सामाजिक और नैतिक दायित्वों को पूरा करना होता था। इस प्रकार उन्हे बेटी बन कर माता पिता की बातों का पालन करती थी तों शादी के बाद अपने पति की इच्छा एवं उस के हितों की पूर्ति के लिए अपना समस्त जीवन समर्पित कर देती थी। 18वी शताब्दी के समाज में बाल विवाह, कन्या हत्या, बहु विवाह, सती प्रथा, विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति ना देना जैसी अमानवीय बुराईयॉ प्रचलित थी। इस से उन की स्थिति दिन प्रतिदिन गिरती जा रही थी। इसी समय भारतीय समाज में एक ऐसा बुद्धिजीवी मध्यवर्ग उभर कर सामने आया जो सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन द्वारा आधुनिक भारत का निर्माण करना चाहते थे। इसी वर्ग के सहयोग से ब्रिटिश सरकार ने भारत में कुछ सुधारवादी कानून बनाये । इन सामाजिक विधानों का नारी की स्थिति में सुधारों के नजरियें से अत्यधिक महत्व है।
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