कामकाजी नारीः एक अवलोकन
Abstract
समाज एक विषेश प्रकार की व्यवस्था का नाम हैं। जिसमें पुरूश और नारी सृश्टि के आधार हैं। इस सृश्टि में दोनों की सत्ता समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। सृश्टि ने दोनों को समान महत्व प्रदान कर विभिन्न गुणों से युक्त किया है। इनके अपने अलग-अलग गुण एक तरफ तो इनका अलग-अलग महत्व प्रतिपादित करते हैं तो दूसरी तरफ एक दूसरे के पूरक भी बनाते हैं। एक-दूसरे के साथ बिना ये अधूरें हैं। परन्तु समाज विषेश की व्यवस्था के अनुरूप इनके महत्व को प्रतिपादित किया जाने लगता है। जिसके कारण इनके महत्व में असंतुलन का भाव आ जाता है। जिसका उदाहरण हम अपने भारतीय समाज का ले सकते हैं। पितृसत्तात्मक एवं पुरूश प्रधान भारतीय समाज में लम्बें समय से इसी तथ्य के आधार पर नारी को दोयम दर्जे पर रखा गया। एक लम्बे समय तक नारी की स्थिति अत्यंत दयनीय और दासों के समान थी। लेकिन समय के साथ-साथ आधुनिक विचारकों का ध्यान भी इस दषा पर गया। उन्होने नारी की इस स्थिति व दर्द को महसूस किया। इस दिषा में भारतीय समाज में 19वीं सदी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब अनेकानेक समाज सुधारकों ने नारी की स्थिति में सुधार के लिए अनेक सुधारवादी आन्दोलन चलाए। जिसके परिणाम स्वरूप नारी की स्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए। स्वीधीनता के पश्चात भारतीय संविधान में भी सन् 1956 में पारित हिन्दू कोड बिल में स्त्री-पुरूश समानाधिकारों की घोशणा की। कहा जा सकता है कि आधुनिक युग में उन्नति और विकास की धारा में स्त्री के प्रति नयी चेतना विकसित हुई है। भारत में स्त्री स्वतंत्रता की अवधारणा स्वाधीनता आन्दोलन के साथ जुड़ी हुई है। इस समय नारी अपनी बेड़ियों को तोड़कर एक रूप में एक नई भूमिका निभाने के लिए प्रतिबंद्ध हुई।
Full Text:
PDFCopyright (c) 2018 Edupedia Publications Pvt Ltd
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-ShareAlike 4.0 International License.
All published Articles are Open Access at https://journals.pen2print.org/index.php/ijr/
Paper submission: ijr@pen2print.org