औपनिवेशिक भारत में कृषक आन्दोलन
Abstract
भारत प्राचीन काल से ही एक कृषि प्रधान देश रहा हैं। अतः भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित हैं इसलिए औपनिवेशिक काल में कृषि व्यवस्था का प्रभावित होना स्वाभाविक था। प्राचीन कृषि व्यवस्था नवीन प्रशासनिक ढ़ाचे के अधीन धीरे-2 टूट गई । कृषि व्यवस्था में अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा कर अत्यधिक करने से किसानों की हालत अत्यंत दयनीय हो गई । सरकारी कर तथा जमीनदारों का भाग अत्यधिक होने के कारण कृषक साहूकारों तथा व्यापारियों के चुंगल में फंस गए। कृषकों क ेअब दो दुश्मन हो गए थे जिनसे निपटना बहुत ही मुश्किल था एक अंग्रेज तथा दूसरा साहूकार उन्नीसवीं शताब्दी में कृषकों का गुस्सा विद्रोहों तथा प्रतिरोधी के रूप में प्रकट हुआ और देश के विभिन्न भागों में समय-समय पर कृषकों ने अंग्रेजी हुकूमत और पूंजीपतियों के खिलाफ आवाज बुलन्द की और एकत्रत होकर अपना शेष विद्रोह के रूप में प्रकट किया। उनके विरोध का प्रमुख कारण भूमि कर बढ़ाने , बेदखली और साहूकारों की ब्याजखोरी प्रमुख थे। कृर्ष वर्ग में पूर्ण जागृति और सुव्यवस्थित संगठन न होने के कारण कृषकों के विद्रोह ने राजनैतिक रूप धारण नहीं किया परन्तु 20वीं शताब्दी में वर्ग जागृति आई और अनेक किसान सभाओं की स्थापना हुई।
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