भारतीय संदर्भ में नारी सशक्तिकरण व विश्लेषण
Abstract
प्राचीन काल में ही स्त्री जाति अपने अस्तित्व, सम्मान, स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारों के लिये प्रयासरत एवं संघर्षरत रही है। स्त्री सुधारों की घोषणाएं बहुत लम्बे समय से होती रही है। महिलाएं हमारी जनसंख्या की आधा शक्ति है, जिसके लिये आवश्यकता है कि महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों को हर कानून की वकालत द्वारा दिलाने की कोशिश की जाये। जिससे कि वे स्वतंत्र व आत्मनिर्भर बनने की स्थिति में आ सकें। मनुकाल से पहले महिलाओं की शासन एवं समाज में भागीदारी थी तथा बौद्धिक समाज में उन्हें बेहद उच्च सम्मान हासिल था। अथर्ववेद में यह लिखा है कि वे उन्यन संस्कार की अधिकारी थी। ‘श्रोत सूत्र’ में लिखा है कि महिलाएं वेदों का उच्चारण कर सकती थी और इन्हें पढ़ने के लिये शिक्षा भी दी जाती थी। पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ में यह स्पष्ट हो जाता है कि महिलाएं गुरूकुल में शिक्षा-दीक्षा में भाग लेती थी। पतंजलि के ‘महाभाष्य’ में लिखा है कि उस समय महिलाएं शिक्षक थी और वे छात्राओं को वेदों की जानकारी भी देती थी। लेकिन मनुकाल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आनी शुरु हो गई थी। समय के साथ-साथ उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। मध्यकाल तक स्त्रियों को पर्दा-प्रथा, बाल विवाह व सती प्रथा जैसी अनेक कुरीतियों के साथ जीना पड़ा। उनका जीवन नरक के समान था। समाज में उनका सम्मान एवं प्रतिष्ठा लगभग समाप्त हो चुकी थी। आधुनिक काल में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिये कई आन्दोलन हुये। समाज सुधारकों के योगदान के द्वारा व सरकार के योग्य प्रतिनिधित्व द्वारा इस स्थिति को काबू करने की कोशिश की गई। वर्तमान स्थिति पूरी तरह सुचारु नहीं हो पाई है, लेकिन फिर भी प्रयासरत है।
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