औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिकता का विकासः एक विश्लेषण

सुरेंदर सिंह

Abstract


सांप्रदायिकता ऐसी अवधारणा है जिसके तहत समानधर्म वालों के बीच राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक हित समान होते है। यह एक ऐसी मान्यता है जिसके अनुसार धर्म न सिर्फ समाज का आधार होता है। बल्कि यह समाज के विभाजन समाज का आधार होता है। बल्कि यह समाज के विभाजन की आधारभूत इकाई तैयार करता है। शुरू में सांप्रदायवाद भारतीय समाज का हिस्सा नहीं था और न ही यह मध्यकालीन भारत की देन था।1 मध्यकाल भारत में संख्यात्मक दृष्टि से मुख्यतः दो धार्मिक समूह थे। हिन्दू व मुस्लिम लेकिन सांप्रदायवाद अस्तित्व में नहीं थी।2 सांप्रदायवाद धर्म के द्वारा कम और राजनैतिक विचारों द्वारा अधिक प्रचारित होता था। लेकिन वस्तुनिष्ठता की बात करें तो यह भारत में उतना ही प्राचीन था जितना ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार। वस्तुतः एक विचारधारा के रुप में सांप्रदायवाद आधुनिक युग की देन था और उसकी उत्पत्ति औपनिवेशिक शासन की नियुक्त थी। राष्ट्रीय आन्दोलन के मध्य में विशेषकर उग्रवादी चरण में धार्मिक पुर्नउत्थानवादी प्रवृतियां विकसित होती दिखाई देती है। अर्थात धार्मिक प्रतिको पर बल देने के कारण सांप्रदायिकता को बल मिला।3 औपनिवेशिक इतिहास लेखन के तहत जिसमें कुछ भारतीय भी शामिल थे। भारतीय इतिहास की सांप्रदायिक व्यवस्था प्रस्तुत की ओर भारतीय इतिहास का विभाजन हिन्दु-मुस्लिम और ब्रिटिश काल में कर दिया।सांप्रदायिक राजनैतिक को प्रोत्साहन देने में मुस्लिम जागीरदारों की भी विशेष भूमिका रही है। मुस्लिम कालीन वर्ग एवं नवाब की प्रगतिशील आर्थिक कार्यक्रम के तथा बदले हुए समाजवादी रूझान के प्रति अत्याधिक चिंतित थे। उन्होंने अपनी स्थिति को सुरक्षित करने हेतू सांप्रदायिकता राजनैतिक को बढ़ावा दिया।4

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