हिन्दी काव्य में राष्टीयता की भावना
Abstract
हमारे प्राचीन आचार्यों ने भाव विवेचन के अर्न्गत ‘राष्टीयता’ जैसे किसी भाव का उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु विगत इतिहास इस बात का साक्षी है कि राष्टीयता की एक प्रबल भाव है। इसकी प्रद्वलता तो इसी से सिद्व है कि कई बार राष्टीयता की प्रेरणा के सम्मुख अन्य स्थायी भाव - वात्सल्य, रति, शोक आदि फीके पड़ गये हैं। स्वतन्त्र्य आन्दोलन में भाग लेने वाले व्यक्तियों का अपने सम्पत्य एवं पारिवारिक जीवन को ठुकराकर राष्टीयता की आग में कूद पड़ना, यही सिद्व करता है कि राष्टीयता का भाव कभी कभी अन्यय सभी प्रमुख भावों से उपर उठ जाने की भी क्षमता रखता है।
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