गुप्तकालीन समाज में वर्णित नारियों की सामाजिक एवं आर्थिक दशायें : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

धीरेन्द्र सिंह

Abstract


प्राचीन भारतीय मनीषा में नारी का स्थान सदैव सर्वोपरि रहा है फिर भी एक विश्लेषणात्मक झलक की आवश्यकता है। नारी न केवल पुरूष को पूर्णत्व प्रदान कराती रहीं है। अपितु सृजन का आरम्भ बिन्दु बनकर इतिहस के साथ-साथ समस्त मानव जाति को दिशा व नूतनता की ओर उद्वेलित भी कराती रही है। नारी का आरम्भ स्वरूप सृजनशीलत, उर्वरता की देवी के रूप में होकर सतत प्रवाहमान जीवन की ओर प्रयास करता हुआ दिखाई देता है। नारी संस्कृत वाङ्मय में केवल विषयवस्तु ही नहीं रही अपितु विषय वस्तु को रचने वाली व उसमें जीवन्तता लाने वाली, उसे गति देने वाली व वाहिकाओं के रूप में भी कार्यरत रही है। नारी जीवन केवल नवउमंग, नवउल्लास, नवसौन्दर्य व नवसृजनशीलता के अलावा ज्ञान प्रदीप, नवोन्मेषण, वेदविद्या की विशारद भी रहती है। गार्गी, अपाला, घोषा, विश्ववारा, सिक्ता अन्य स्त्रियों के उद्धरण भरे पड़े हैं। जिन्होंने न केवल प्राचीन मनीषा की दशा व दिशा को बदली अपितु उसे सर्वोच्चता के उत्तुंगु शिखर तक पहुँचाने का श्लाघनीय प्रयास किया है।


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