सामाजिक उत्थान में संस्कृत का योगदान

दिनेश कुमार

Abstract


ज्यों-ज्यों ऐहिक सुखोन्मुख होता जा रहा है, आध्यात्मिक प्रगति के स्थान पर भौतिक प्रगति की ओर अग्रसर होता जा रहा है, त्यों-त्यों उसमें स्वार्थपरायणता, धनलोलुपता, कर्तव्यविमुखता आदि की वृद्धि होती जा रही है। उच्च नैतिक आदर्शों से विहीन हो रहे मानव-समाज में कई विकृतियाँ आ गयी है, जो विकट समस्या का रूप धरण कर गयी हैं। आज आतंकवाद, पर्यावरण-प्रदूषण, राजनैतिक अस्थितरता, धर्मिक विद्वेष, सामाजिक विषमता, राष्ट्रदोह, क्षीण हो रहे पारिवारिक रिश्ते, जनसंख्यावृद्धि आदि कुछ समस्याएँ हमारे समक्ष हैं। संस्कृत-साहित्य भारतीय मनीषियों के युगीन चिन्तन और बोध् का परिणाम है। इसमें वह ज्ञान निहित है, जो अजर-अमर होने के साथ-साथ युगबोध्क भी है। समसामयिक समस्याओं का उपचार क्या है, किसी समस्या विशेष में हमने कैसी जीवनशैली अपनायी है, इसका सामाधन क्या है, किस प्रकार की जीवनपद्धति श्रेयस्कर है, इत्यादि के लिए हमें संस्कृत की शरण में जाना होगा। कुछ एक वर्तमान समस्याओं के सम्बन्ध में संस्कृत साहित्य का दृष्टिकोण इस प्रकार है -


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