हिन्दी दलित नाटक

डॉ संतोष रानी

Abstract


भारतीय साहित्य में नाटक को पंचम वेद माना गया है। नाटक ही एक ऐसी विधा है जो जनमानस पर सीधे चोट करने के साथ-साथ उसे प्रभावित भी करती है और दिशा भी देती है। ”नाटक साहित्य की शक्ति और सामर्थ्य को अपने आलेख में समाहित करने वाली वह विशिष्ट साहित्यिक विद्या है जिसकी अपार संभावनाओं का प्रमाण केवल दृश्य रूप में ही निहित रहता है। मूल आलेख में विद्यमान नाट्य व्यंजना की अनन्त संभवनाएं मंच पर जीवन धारण करती है।“1
शुरू से ही दलित समाज और नाट्य परम्परा का अत्यन्त घनिष्ट सम्बंध रहा है क्योंकि नाटक में काम करने वाले लगभग पात्रा दलित समाज से ही होते थे। दलित समाज और भारतीय नाट्य परम्परा के अन्तर्सम्बंध को प्रकट करते हुए डॉ0 एन0 सिंह लिखते है -


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