संस्कृत लोक कथा-साहित्य

पूनम रानी

Abstract


लोक् (देखना) धातु एवं छञ् प्रत्यय के संघात से ‘लोक‘ का आविर्भाव हुआ है। सभी प्रत्यक्ष लोक है। यही नहीं, लोक भी तीन माने गए हैं और चौदह भी इहलोक परलोक को विषय में पढ़ा व सुना जाता है। पर हमें वायवी लोकोत्तर की अपेक्षा हमारे आसपास के इहत्वोक की चर्चा ही अभिष्ट है। क्योंकि लोकपद्धति का अनुसर्ता लोकापवाद का पात्र नहीं होता। लोक मर्यादा से प्रतिबद्ध लोकजीवन की यात्रा को सुगम बनाने के लिए अपनाये गए लोक के विविध साधनों में लोक मर्यादा से प्रतिबद्ध लोकजीवन की यात्रा को सुगम बनाने के लिए अपनाए गए लोक के विविध साधनों में लोकगाथा तथा लोककथा का अपना विशिष्ट स्थान है। परम्परा से लोक में गाये जाने वाले गीत को लोकगीत एवं ऐसे ही कथात्मक गीत को लोकगाथा कहते हैं। लोकजीवन का सफल अनुरंजन करने में ये दोनो (लोकगाथा व लोककथा) धाराएं अज्ञात काल से लोक संस्कृति का अविच्छिन रूपेण श्रुतिपरम्परया वहन करने में सफल रही है। हमें इन द्रष्टाओं की मेधा का लोहा मानना होगा। जिन्होने लोकरंजन के ये रसभासित साधन सुलभ किये।


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