मध्यकालीन नाटकों में नारी की स्थिति एक अध्ययन
Abstract
यदि भारत के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करें तो दृष्टिगत होता है कि सामाजिक व्यवस्था में स्त्रीयों का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। हिन्दु समाज में उनका सम्मान और आदर्श प्राचीन काल से आदर्शात्मक और मर्यादायुक्त था। उनकी स्थिति पुरुषों के समान थी। उन्हें विवाह, शिक्षा, सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त थे। परिवार में उनके द्वारा कन्या, पत्नी, वधू और माँ के रूप में किये जाने वाले योगदान का श्रृद्धा, महत्त्व और सम्मान था। किन्तु स्त्रियों की दशा में युग के अनुसार परिवर्तन भी होता रहा है। उसकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर पूर्व-मध्यकाल तक अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं तथा उनके अधिकारों में इसी प्रकार परिवर्तन भी होते रहे हैं। नारी समाज का अभिन्न अंग है। किस भी समाज की उन्नति उस समय तक पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक उसमें स्त्रियों को पूर्ण स्थान ना मिले। नारी की स्थिति सभ्यता का मापदण्ड है। समाज के स्तर पर अनेक भूमिकाओं के साथ ही माता, बहन, पुत्री, प्रेयसी, दोस्त तथा वैश्या तक जाती है। वह किसी न किसी रूप में अवश्य ही चित्रित होती है। वास्तव में गृहस्थाश्रम की सफलता नारी पर आधारित है। प्रस्तुत शोध विषय में नाटकों के आधार पर नारी की स्थिति की इन विभिन्न रूपों को दिखाने का प्रयास किया है।
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