दलित लेखकों की दृष्टि में आरक्षण : एक विश्लेषण
Abstract
‘ये सही है कि आजादी के तीन साल बाद भारतीय संविधान ने सबको वोट का समान अधिकार देकर दलितों को राजनीति में हस्तक्षेप करने का बराबर का दर्जा दिया है। यह भी सही है कि दलित, आदिवासियों को विधायिका, रोजगार और शिक्षा में आरक्षण देकर बाबा साहब ने उन्हें राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समानता देने की ओर एक बड़ा कदम उठाया जो दलितों में आत्मसम्मान एवं अस्मिता निर्माण हेतु आवश्यक था। लेकिन ये आरक्षण कहीं भी पूरी तरह लागू नहीं हुआ क्योंकि सवर्ण समाज ने ही नहीं बल्कि अन्य गैर-दलित समाज ने भी संविधान के इस प्रावधान को कभी मन से नहीं स्वीकारा। दरअसल सरकार द्वारा इसे लागू करने या करवाने वाले लोग वही थे जो इसका विरोध करते थे। इसलिए इसका सतत् कड़ा विरोध ही होता रहा, खासकर शिक्षा व रोजगार के मामले में। फलतः आज तक रोजगार और नियोजन के मामले में आरक्षण पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका है। इसके खिलाफ दलित समाज का जो स्थायी संघर्ष और संगठित होकर संघर्ष करना चाहिए था, वह भी नहीं हो पाया।’’
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