भारतीय इतिहास में जाति व्यवस्था का विकास 1500 ई.पू. से 300 ई.पू. तक

अमित कुमार सिंह, कुलदीप कौर

Abstract


जाति व वर्ण व्यवस्था प्राचीन भारतीय इतिहास में उद्भूत हुए. इसका सीधा सम्बन्ध व्यक्ति और समाज से है. यह जन्म मूलक नहीं है. प्रकृति किसी भी मनुष्य को जाति का तमगा लगा कर नहीं भेजती है. यह नितांत मानव का आविष्कार है. वर्ण व्यवस्था के रचनाकार कहते हैं कि इसकी स्थापना समाज के सही निर्माण के लिए की गयी थी. जिसका सबसे पहला प्रमाण हमें ऋग्वेद के काल में मिलता है.[1] जाति व्यवस्था का निर्माण हालांकि वर्ण व्यवस्था से ही हुआ लेकिन इसमें मौलिक भेद है. वर्णसंकरता जाति व्यवस्था के स्थापना का मूल कारण है.  जाति व्यवस्था का विकास हम उत्तर वैदिक काल में पाते हैं.[2] गुप्त काल तक आते आते वर्ण व्यवस्था अपनी पूरी सुचिता खो बैठती है और समाज में अनेक ऐसी जातियां स्थान लेती हैं जिन्हें सामाजिक व्यवस्था से बाहर रखा जाता था. ऐसी जातियों को अन्त्यज कहा गया है. अलबरूनी भी इन्हें चंडालकी संज्ञा देता है. इनके पास न ही नागरिक अधिकार थे और न ही क़ानूनी. इस शोध पत्र में मैंने जाति व्यवस्था के विकास को ३०० ई.पू. तक विश्लेषित करने का प्रयास किया है तथा साथ ही साथ समाज पर इसके प्रभावो का उल्लेख भी किया है. उंच-नीच, छुआ-छूत, भेद-भाव आदि सामाजिक कुरीतियाँ जाति व्यवस्था के ही परिणाम हैं.


[1] ऋग्वैदिक काल १५००-१००० ई.पू. का काल है.

[2] उत्तर वैदिक काल का समय ऋग्वैदिक काल के बाद शुरू होता है, इसका समय है १०००-६०० ई.पू.


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