मुक्तक काव्य के विकास में कबीर, रैदास, दादूदयाल के साहित्य की भूमिका
Abstract
मुक्तक शब्द का अर्थ है, ‘अपने आप में सम्पूर्ण’ अर्थात एक ऐसा काव्य जो स्वयं में ही पूरा हो तथा उससे पहले किसी कथा या विशिष्ट छंद का कोई समावेश न हो। आमतौर पर हिन्दी समाज में रीतिकालीन मुक्तक की बात तो बहुत अधिक की जाती है किन्तु देखने की बात यह है कि मुक्तक का प्रयोग संस्कृत काव्य परम्परा से आरंभ होकर क्रमशः आदिकाल तथा भक्तिकाल में भी दिखाई पड़ता है। भक्तिकाल में तो वैसे भी भाषा को ‘बहता नीर’ कहा गया है। अतः ‘बहता नीर‘ तो है ही ‘मुक्ति’ का द्योतक। यही कारण है कि शास्त्रीय ज्ञान से मुक्त होकर भी यह कविता लोक भाषा का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बनकर हमारे सामने आती है। बात कबीर, रैदास तथा दादूदयाल की करें तो ये तीनो संत कवि मुक्तक काव्य को किसी काव्यगत इच्छा के साथ आगे नहीं बढ़ा रहे अपितु यह सम्पूर्ण काव्य उनके संप्रेषण का माध्यम मात्र बनकर सामने आया है। अपनी सहज प्रतिभा के बल पर ये तीनों कवि न केवल मुक्तक काव्य की सृष्टि करते हैं अपितु अनेकानेक प्रयोग भी करते हुए दिखाई पड़ते हैं।
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