लोकजागरण के उद्घोषक कबीरदास
Abstract
संत शिरोमणि सदगुरु कबीर साहब का आविर्भाव विक्रम संवत १४५६ को ज्येष्ठ पूर्णिमा दिन सोमवार को काशी लहरतारा सरोवर में हुआ। लहरतारा में उनका प्रथम दर्शन श्रीमती नीमा देवी को हुआ था। इसी दिन मियां नीरू अपनी धर्मपत्नी नीमाजी का द्विरागमन करके मड़वाडीह से लेकर आ रहे थे। गर्मी का दिन, ज्येष्ठ की तपतपाती दुपहरी थी। नीमाजी प्यास से आकुल व्याकुल हो उठी। अतः शुभ्रस्वच्छ जल से परिपूरित लहरतारा सरोवर के निकट पालकी उतार दी गई। नीमा जी प्रकृति के अंक के सुभोभित लहरतारा की ओर बढ़ चली। लहरतारा अलौकिक कमलपुष्पों की बहुलता के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है। ज्यों ही नीमा जी ने लहरतारा की ओर दृष्टि निक्षेप किया कि उनकी दृष्टि एक वृहत् कमलपुष्प पर जा पड़ी, जिस पर एक सुंदर, सुकोमल मनोहारी नवजात शिशु अपने हस्त पाद से अठखेलियां करता हुआ आनंद से किलकारियां भर रहा था। उसके मुखमंडल पर एक दिव्य आभा फैली हुई थी। उसकी मनोहारी गैवी छवि को देख तृषाकुलता को भूल बरबस एकटक उसकी ओर निहारती रह गई। वह उस बालक को अपने हृदय से लगा लेने को व्याकुल हो रही थी। अंततः उन्होंने लोक लाज के भय को तोड़कर नुरानी बच्चे को अपनी गोद में उठाकर भावविभोर होती हुई नीरूजी के पास आई और उस बालक को घर ले जाने का हठ करने लगी। नीरू जी ने लोग क्या कहेंगे, इस भय से पहले तो नाहिं की, पर नीमा जी के हठ और बालक के मनोहारी दिव्य आकर्षण में बंधा उनके चित्त ने उन्हें बालक को अपने घर ले जाने को मजबूर कर दिया। वही बालक आगे चलकर महाप्रसिद्ध संत कबीर कहलाए। बचपन से ही अलौकिक प्रभा छिटकती थी उनके जीवन में।अतः कबीर साधु संत और सूफी फकीर दोनों के सत्संग में बैठते।
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