मोहन राकेश का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
Abstract
हिन्दी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय उस समय हुआ जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में जीवन के हर क्षेत्र को स्पन्दित कर रहा था। उनके नाटकों ने न सिर्फ नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिन्दी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया। उसके पहले, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद जैसे प्रतिभावान रचनाकारों के बावजूद, हिन्दी नाटक अधिकांशत: या तो सस्ते में मनोरंजन का साधन बना हुआ था या फिर नाट्य पुस्तकों की दीवारों के पीछे बन्द था। पचास के दशक में उसे धीरे-धीरे एक अत्यन्त ही समर्थ किन्तु जटिल और परिश्रम तथा प्रशिक्षण-साध्य कला माध्यम के रूप में स्वीकृति मिलना शुरू हुआ, और साथ ही नाट्यकर्मियों से भी अधिक जागरूकता संवेदनशीलता और कलात्मक गंभीरता की अपेक्षा होने लगी। 1958 में संगीत नाटक अकादेमी द्वारा मोहन रोकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन को सर्वश्रेष्ठ नाटक के लिए और कलकत्ते की नाट्यमंडली अनामिका को विनोद रस्तोगी के ‘नये हाथ’ के सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण के लिए पुरस्कारों में इस बदलती हुई स्थिति की ही स्वीकृति थी। उसके बाद से हिन्दी नाटक लगातार आगे बढ़ता रहा है। और सारी सीमाओं के बावजूद उसके क्रमश: हिन्दी के सृजनात्मक साहित्य के क्षेत्र में और देश के नाटक साहित्य में सार्थक स्थान हासिल किया है।
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